मार्च 02, 2012

पढ़ी जाने लायक एक जरूरी किताब

            इस बार के  पुस्तक मेले में मैंने कुछ किताबे हर बार की तरह इस बार भी खरीदी .ये किताबे साहित्य के अलावा दूसरे विषयों की भी है .इन्ही किताबो में गार्गी प्रकाशन की एक पुस्तिका 'विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिया' भी है .इस पुस्तिका में दस लेखो को संकलित किया गया है . ये सभी "द बंगलौर साइंस फोरम" द्वारा 1987 में अंग्रेजी में  प्रकाशित "साइंस नान साइंस एंड द पारानॉर्मल " नामक एक संकलन से लेकर अनुवादित किया गया है.
             टी वी विज्ञान की देन है. इस पर आने वाले चैनल भी विज्ञान की तकनिकी का सहारा से ही टिके है .पर भारत में इस साधन का उपयोग भयानक ढंग से अवैज्ञानिकता को प्रसारित करने में हो रहा है. विज्ञान को भी नितांत "अवैज्ञानिक नजरिये" से देखने और दिखाने की लगभग सफल प्रयास किया जाता है."विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिये के बीच गहरा सम्बन्ध होता है .लेकिन हमारे देश और समाज में एक अजीब विरोधाभास दिखाई दे रहा है. एक तरफ विज्ञान और तकनालजी की उपलब्धियों का तेजी से प्रसार हो रहा है तो दूसरी तरफ जनमानस में वैज्ञानिक नजरिये के बजाय अंधविश्वास ,कट्टरपंथ ,पोंगापंथ, रूढ़ियाँ और परम्पराएँ तेजी से पांव पसार रही है.वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सबसे अधिक फायदा उठाने वाले तबके ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर अतीत के प्रतिगामी ,एकांगी और पिछड़ी मूल्य-मान्यताओं को महिमामंडित कर रहे है. वैज्ञानिक नजरिया, तर्कशीलता, प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता की जगह अंधश्रद्धा संकीर्णता और असहिन्नुता को बढ़ावा दिया जा रहा है " यह पुस्तिका की भूमिका से उधृत है .
              पुस्तिका में पहला और आखिरी लेख हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का है. यह इस ओर इशारा करता है कि किसी भी समय और समाज में राजनितिक नेतृत्व  के विभिन्न कार्यभार में क्या क्या शामिल हो सकता है.पहले लेख में नेहरू का मानना है कि "चीजों को देखने का तरीका एकदम अलग होता है.इसमें कुछ भी आलोचना से परे नहीं होता और सच्चाई तक पहुचने के लिए निरंतर प्रयोग करता रहता है. यह दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से धार्मिक  दृष्टिकोण के विरुद्ध है और यह आश्चर्यजनक नहीं कि दोनों के बीच लगातार संघर्ष  बना रहा" आज की स्थिति  में तो वास्तविकता इस डर के मुहाने पर खड़ा कर देती है कि इस संघर्ष में धार्मिक  दृष्टिकोण की विजय निश्चित सी दिखती है.
                   पुस्तिका में दो तरह के लेख है.पहली श्रेणी के लेखों में गंभीरता का गुण समाहित है.बेहद तार्किक ढंग और भाषा के साथ विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिये का पक्ष स्पष्ट किया गया है.दूसरी  श्रेणी के लेखों में सरल भाषा और तथ्यों के साथ अंधविश्वास और धर्म के नाम पर किये जाने वाले चमत्कारों की चीरफाड़ की गयी है.लेखों की भाषा और सामग्री उनको पढने के लिए प्रेरित करती है.
              
                  आज जब कि साक्षरता की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आया है. उसके बावजूद समाज में   अवैज्ञानिक नजरिये  के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए इस सिद्धांत हम छीजते हुए पाते है कि अनपढ़ समाज में   ही अज्ञान और अवैज्ञानिक नजरिये  का प्रभा संभव है.समाज में वैज्ञानिक नजरिये के प्रचार प्रसार में लगे एच नरसिम्हैया ठीक ही कहते है कि "हमारा देश   अंधविश्वास  से भरा पड़ा है. एक शिक्षित  अंधविश्वासी व्यक्ति              समाज के लिए अशिक्षित अंधविश्वासी से ज्यादा खतरनाक है.शिक्षितों को सही तरीके से  शिक्षित किये जाने की अविलम्ब आवश्यकता है. सभी  अंधविश्वास भय और अज्ञानता से पैदा होते हैं. ये आत्मविश्वास को कमजोर करके  भारी नुकसान पहुंचाते है. ये सक्रिय सोच और निडरता की धार को कुंद करते है.
             यह अफ़सोस की बात है कि विज्ञान द्वारा हासिल उपलब्धियों के कारण उसकी प्रतिष्ठा तो है.लेकिन  वैज्ञानिक चेतना अलोकप्रिय है. परन्तु मैं कहना चाहूँगा  कि विज्ञान कि मुख्य गुण उसकी चेतना में है"और यही बात लोकतंत्र के बारे में भी कही जा सकती है. 





              

फ़रवरी 07, 2012

इस समाचार का समय सन्देश यही लगा कि अपने आलू से चिप्स और दूसरी ऐसी चीजे बना लेना ज्यादा सरल है बजाय आलू को फेकने के. यह क्रन्तिकारी उदाहरण का जब तक स्थापित नहीं किया जायेगा तब तक शायद हमारे देश के किसानों की समस्या हल नही होने वाली.रही बात "कुछ करोड़" रूपयों के इंतजाम की; तो आगे बढ़ कर कुछ नया करने,सफल होने के लिए इतना "पेन" उठाना ही पड़ेगा.


आज शाम टी वी पर समाचार देख रहा था .टी वी पर समाचार देखने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है कि जब तक जरूरी न हो तब तक आप चैनल बदलते रहे .नयेपन और ब्रेकिग न्यूज़ की आपाधापी में केवल चैनल ही नहीं ,लगभग हर खाशोआम दर्शक भी इसी  आपाधापी में लगा रहता है.इसी तरह की प्रक्रिया से गुजरते हुए मैं एक चैनल पर पहुचा तो वहा खबर चल रही थी कि आलू किसान आलू फेकने की जगह उससे फायदा कैसे ले सकते है .मैं रूक गया कि 'आत्महत्या' करने के लिए मजबूर होने वाले किसानों को जीने का रास्ता बताने वाली खबर तो देखी ही जानी चाहिए.
         पूरी खबर देख लेने के बाद मैं चिंता में पड़ गया.खबर की शुरुआत में समाचार वाचक ने बड़े संवेदनशील अंदाज में बताना शुरू किया कि आलू किसान अपनी फसल सड़कों पर फेकने के लिए मजबूर हो जाता है. वह बताता है कि इस साल उत्पादन ज्यादा होने के कारण कई जगहों पर आलू किसान को १ से १.५ रूपये किलों के दम पर अपना उत्पाद बेचना पड़ा.इस दाम पर तो उसकी लागत के आधे हिस्से की भी भरपाई नहीं हो पाती है.टी वी पर उस समय किसानो का आलू नष्ट करते हुए फुटेज भी मार्क अंदाज में चल रहा था. कुछ ही देर में खबर का मिजाज़ खुशनुमा हो जाता है. समाचार वाचक पंजाब के एक ऐसे किसान की कहानी दर्शकों के सामने परोसता है.जो उसके कहे अनुसार आलू किसानों के लिए एक उपयोगी उदाहरण हो सकता है.किसान इस सफल किसान के रास्ते पर चले तो उन्हें अपना आलू सड़क पर फेकने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा.वाचक हमें यह भी बताता है कि इस किसान को उसकी इस उपलब्धि के लिए एक पुरूस्कार समारोह में सम्मानित भी किया गया है. यह समारोह एक बड़ी कंपनी ने आयोजित किया था जो बड़ी गाड़िया बनाने में सफल होने के बाद असीम  सम्भावना वाले 'कृषि क्षेत्र' में काम करने के लिय अपने कदम बढाये है .     
             खबर का सफल 'किसान'मेरी पहचान वाला किसान नहीं था.शायद आप की पहचान का भी न हो. वह ऐसा किसान था जो अपने आलू को फेकने से बचाने के लिए आधुनिक तकनीक और 'बड़े बाज़ार' को इस्तेमाल करने लगा था.इस 'किसान' ने आलू फेकने की जगह उससे चिप्स और पाउडर बनाने का निर्णय करके अपने साहस का परिचय देता है. इसके लिए वह ज्यादा नहीं 'कुछ करोड़' रूपयों की मशीन हालैंड से मँगवाता है.जैसा की समाचार वाचक ने बताया चिप्स और आलू पाउडर के "बड़े बाज़ार' का ध्यान रख कर किया गया यह काम उस किसान को सफलता के शिखर की ओर लगातार धकेल रहा है.आप समाचार वाचक से यह सामान्य सा प्रश्न नहीं कर सकते कि आलू का बाज़ार बड़ा है या 'चिप्स और आलू पाउडर' का ? या ये प्रश्न कि इसी देश में आलू का दाम खेत में १ या १.५ रूपये रहने के बाद भी बाज़ार में कभी भी ५-६ रूपये से कम नहीं हुआ. निश्चय ही 'चिप्स और पाउडर का ही क्योकिं जिन लोगो के पास खरीदने की ताकत है,उनको ये चीजे पसंद आती ही है.उस किसान के पास आपने "आलू' की इस  बिक्री के बाईपास रस्ते के लिए तकनीक का इस्तेमाल तो आता ही है.वह इन चिप्सों का विज्ञापन सहारा भी ले सकता है.आधुनिक और सफल "किसानपने' के लिए समय के साथ कदम से कदम मिला कर चलना ही चाहिए. 
            इस समाचार का समय सन्देश यही लगा कि अपने आलू  से चिप्स और दूसरी ऐसी चीजे बना लेना ज्यादा सरल है  बजाय आलू को फेकने के. यह क्रन्तिकारी उदाहरण का जब तक स्थापित नहीं किया जायेगा तब तक शायद हमारे देश के किसानों की समस्या हल नही होने वाली.रही बात "कुछ करोड़" रूपयों के इंतजाम की; तो आगे बढ़ कर कुछ नया करने,सफल होने के लिए इतना "पेन" उठाना ही पड़ेगा.पी साईनाथ जैसे पत्रकारों को भी इस तरह की ख़बरों की ओर ध्यान देना चाहिए जिससे हमारे देश के किसानों को प्रेरणा मिले और वे भी कुछ नयी मिसाल पेश कर सके. किसान और पूंजीपति के बीच अंतर न कर पाने की क्षमता की कमी कहे या अपनी नौकरी की मजबूरी जो भी कारण हो .ऐसी स्थिति में खबरों के इस तरह की प्रस्तुति से भी हमारा आपका मिजाज़ भले ही खिन्न होता हो.कुछ लोग तो ऐसे है ही जिनके हित साधते ही है. और ये लोग ताकतवर भी है.  

जनवरी 23, 2012

मूर्ति गाथा के निहितार्थ [आंबेडकर और मायावती की मूर्तियों के बहाने ]

                                                            मूर्ति गाथा के निहितार्थ 


 उत्तर प्रदेश में मायावती और पार्को में लगी हाथियों कि मूर्तियों को ढक देने का मामला चर्चा का विषय बना रहा . भारतीय समाज में मूर्तिओं के प्रति विशेष लगाव और दृष्टीकोण को देख जा सकता है . बड़े से बड़ा " मूर्ति " विरोधी भी इस लगाव का शिकार होने से आपने आप को बचा नहीं पाया . "पाथर" पूजने के घोर विरोधी कबीर को भी पाथर में ढल जाना पड़ा .धातु, मिटटी या पत्थर की बनी मूर्तियों के साथ कई आयाम जुड़े होते है . राजनीतिक आयामों के साथ साथ सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष भी गहरे जुड़ा होता है . बुतपरस्ती न करने वाले देशों में भी मूर्तियों के  बनने और टूटने की तात्कालिक घटनाओं को हम इराक और लीबिया में देख चुके है .
                        दुनिया भर के देशों में युद्ध नायकों की  मूर्ति लगाने का चलन है. जिन नायकों की मुर्तिओं में घोडें साथ हो उनमे घोड़ों की अगली टांग से योद्धा  की मृत्यु का कारण स्पष्ट हो जाता है . यदि मूर्ति में घोड़े की अगली दोनों टाँगें  हवा में उठी हो तो; अर्थ है कि सवार नायक की मृत्यु युद्ध क्षेत्र में हुई थी .अगली टागों में से केवल एक के उठे होने का अर्थ निकलता है कि सवार नायक की मृत्यु युद्ध  में घायल होने के कारण  हुई. तीसरी और अंतिम स्थिति बनती है ,जब दोनों टाँगें  जमीन पर टिकी हो . इस स्थिति का अर्थ है कि सवार नायक की मृत्यु प्राकृतिक रूप में हुई . 
                    भारत में जिन भी देवी देवता की मूर्ति बनती या बनायीं जाती है उनमे उनसे सम्बंधित प्रभाव को पैदा करने का काम भी किया जाता है. बुद्ध और महावीर की मूर्ति के बीच अंतर उनकी भंगिमा के आधार पर ही किया जाता है .बुद्ध की  मूर्ति में हाथ उपदेश की मुद्रा में होता है तो महावीर की मूर्ति में हाथ पद्मासन की मुद्रा में होता है . ईसा मसीह की सूली चढ़ने की स्थिति वाली मूर्ति को  देख कर सबको पीड़ा और करुणा का अनुभव हो जाता है .
                रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति घोड़े पर सवार ,हाथ में तलवार और पीठ पर बच्चे को बांधे दिखती है .चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति और फोटो मूंछ पर ताव देते ही दिखती है .अभी हाल में भगत सिंह की भंगिमा को लेकर विवाद भी पैदा हुआ था . "शहीदे आजम" भगत सिंह की हैट वाली भंगिमा के स्थान पर पगड़ी वाली स्थिति को तवज्जो देकर भगत सिंह की राजनीती को नेपथ्य में धकेलने का उद्देश्य सामने रखा गया था . "हैट" की जगह  "पगड़ी" पहना देने भर से सन्देश और प्रभाव दोनों में गुणात्मक बदलाव आ जाता है .
              अम्बेडकर  ने दलितों के सामाजिक और राजनीतिक ताकत और पहचान के लिए निरंतर नेतृत्वकारी संघर्ष किया .आजादी के बाद जब संविधान बनाने की जिम्मेदारी मिली तो "समानता" के सिद्धांत को व्याहारिक जामा पहनाया .बहुत संभव है कि अम्बेडकर के अलावा दूसरा इतने प्रभावी ढंग से  "संविधान के समक्ष समानता" को शायद ही स्थापित कर पाता. सदियों से दमित और शोषित लोगों को आत्मविश्वास से सपन्न करने के लिए अम्बेडकर ने "शिक्षित बनो " ,"संघर्ष करो " का रास्ता दिखाया . उनके राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक संदेशो को हम उनकी उन मूर्तियों से ग्रहण करते है जो देश के कोने कोने में लगाई गई है .अपनी मूर्तियो में अम्बेडकर एक हाथ में किताब संभाले दूसरे उठे हाथ की अंगुली से संघर्ष के लिए प्रेरित करते महसूस होते है . बदलाव और संघर्ष की जिजीविषा का  सन्देश स्पष्टतया संप्रेषित हो जाती है .ऐसा नहीं हो सकता कि डा अम्बेडकर अपने सामान्य जीवन में चौबीसों घंटे हाथ में किताब लेकर रहते हो .पर अम्बेडकर प्रभावी और सार्थक  भंगिमा का निर्माण इस "किताब" के बिना शायद नहीं हो सकता था .
              अन्य महान माने गए व्यक्तित्वों की मूर्तियो के साथ भी ऐसा ही कहा जा सकता है कि उनको लगाये जाने के पीछे के  राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक संदेशो को किसी न किसी रूप में समझा जा सकता है . मूर्तियो के लगाये जाने का कोई न कोई  राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक कारण जरूर होता है .गाँव के दलित बस्ती में लगने वाले अम्बेडकर की मूर्ति से उस बस्ती का आदमी अपने भीतर आत्मविश्वास और आगे बढ़ने की प्रेरणा ग्रहण करता है . मूर्ति के हाथ में किताब का होना एक बड़े प्रतीक और सशक्त सन्देश  में बदल जाता है . उठी अंगुली से शिक्षा और राजनीती की ओर बढने की अदम्य प्रेरणा मिलती है .अम्बेडकर की जितनी भी मूर्तियाँ देश भर में लगी है ,उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि ये मूर्तियाँ सरकारी पहल से कम और आम दलित ,शोषित जनसमुदाय के आंदोलनों से ज्यादा लगी है .  उत्तर प्रदेश में भी ये मुर्तिया बहुत पहले से इसी तरह की पहलकदमी से लगती रही है .राजनीतिक चेतना को सामाजिक और सांस्कृतिक आधार के साथ विकसित करने का काम   इन मूर्तियो के रस्ते भी हुआ है .
               उत्तर प्रदेश में अपने शासन कल में मायावती ने दलित अस्मिता की पहचान और स्वाभिमान को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए कई स्मारकों और पार्को का निर्माण करवाया है . इनमें इतिहास की धारा में जबरन किनारे कर दिए गए दलित नेतायों की मूर्तियाँ लगी हुई है . इन मूर्तियों में मायावती की भी मूर्ति लगी हुई है . अम्बेडकर की मूर्ति यहाँ भी "किताब" और "उठी उंगली " के साथ है . मायावती की मूर्ति चंहुदिसि  स्थिति में लगी हुई है . अपनी ऊँची  भव्य मूर्ति में  मायावती के एक हाथ में "पर्स" लटक रहा है . अब इस मूर्ति भंगिमा से कौन से   राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक सन्देश ग्रहण किया जायेगा , यह विद्वानों के विचार का क्षेत्र का विषय हो जाता है .      
            

मनोज पाण्डेय